राजस्थान के इस खेत में उगती हैं रंग-बिरंगी सब्जियां

राजस्थान के इस खेत में उगती हैं रंग-बिरंगी सब्जियां

झालावाड़ जिले का अकलेरा कस्बा, जिसमें छोटा सा गांव है दतीला। इस गांव के 37 साल के युवा किसान जयेंद्र सिंह तंवर चर्चा में हैं। जयेंद्र ने बिना किसी पेस्टिसाइड और केमिकल के कई तरह की रंगीन सब्जियां उगाई हैं। खास बात ये है कि ये सभी सब्जियां जैविक विधि से तैयार की गई हैं। जयेंद्र के संघर्ष और सफलता की कहानी बहुत प्रेरित करने वाली है।



म्हारे देस की खेती में आज बात झालावाड़ के किसान जयेंद्र सिंह तंवर की ।

जयेंद्र ने बताया कि उनके दादा परंपरागत खेती ही करते थे। पिता नंद सिंह फोरेस्ट विभाग में गार्ड की नौकरी करते थे। साथ ही खेती-किसानी में दादा का हाथ बंटाया करते थे। बचपन से वे भी पुश्तैनी खेती और दूध के कारोबार से जुड़ गए। 10वीं क्लास अकलेरा से ही पास की। इसके बाद स्टेट ओपन से 12 क्लास पास कर ली। कॉलेज के एग्जाम प्राइवेट दिए और छोटे भाइयों की शादी की जिम्मेदारियों के चलते सेकेंड ईयर में पढ़ाई छोड़ दी।



2007 में जयेंद्र की शादी ममता से हो गई। ममता अब अकलेरा में ही आशा सहयोगिनी हैं। जयेंद्र ने बताया कि शादी होने के बाद नौकरियों में भाग्य आजमाता रहा, लेकिन बात बनी नहीं। 2009 में उदयपुर में कृषि विज्ञान केंद्र से खेती में नवाचार की बारीकियां सीखीं। इसके बाद 2010 में मैजिक एग्रो बायोटेक कंपनी में वर्कर लग गया। खेती-किसानी का बैकग्राउंड था ही। ऐसे में महज 3 महीने में ही 3 प्रमोशन मिले। जल्द ही असिस्टेंट सेल्स मैनेजर बन गया। कमीशन और इंसेंटिव मिलाकर महीने के 30 हजार रुपए आने लगे। उस वक्त ये बहुत अच्छी नौकरी थी, लेकिन एग्रो कंपनी के लिए काम करते हुए लगा कि मेरे पास खेत हैं तो मुझे नौकरी करने की जगह खेती पर फोकस करना चाहिए।यही सोचकर 2011 में नौकरी छोड़ दी और खेती में नवाचार करने की ठानी। मैंने 2011 में पॉली हाउस के लिए आवेदन करते हुए फाइल लगाई। लेकिन मुझे लोन नहीं मिला। मैं मायूस तो हुआ लेकिन हार नहीं मानी। पूरी तरह खेती में रम गया। इसके बाद 2014 में मैंने पॉली हाउस की तकनीक को समझा और बांस का ढांचा तैयार कर खुद का पॉली हाउस तैयार कर लिया। इस पॉली हाउस से मैंने 3 साल में सब्जियों और खीरा का अच्छा प्रोडक्शन लिया।



2013-14 में ही जयेंद्र ने एक और प्रयोग किया। इन्होंने अपने ओपन फार्म में खुद लो-टनल तकनीक शुरू की। यह ऐसी तकनीक होती है जिससे सब्जियों के पौधों की कतार को कवर कर दिया जाता है। इससे उनका टेम्परेचर मेंटेन होता है और ग्रोथ बढ़ती है। लो-टनल तकनीक से उन्होंने भिंडी की फसल ली, जिसका उन्हें हर सीजन में बहुत अच्छा दाम मिला। खुद की ईजाद की लो-टनल की तकनीक से जयेंद्र अब लाल रंग की भिंडी की फसल पर काम कर रहे हैं। जल्द ही यूनीक लाल भिंडी बाजार में होगी।2017 के बाद से जयेंद्र अपने खेतों में खुद की तैयार की हुई वर्मी कम्पोस्ट का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। उनका कहना है कि वर्मी कम्पोस्ट का कोई मुकाबला नहीं है। किसान अगर अपने लेवल पर वर्मी कम्पोस्ट तैयार कर लें तो उन्हें महंगे और हानिकारक रासायनिक खेत में डालने की जरूरत नहीं है। वर्मी कम्पोस्ट के साथ कार्बनिक पदार्थों का इस्तेमाल कर स्प्रे तक से बचा जा सकता है। फसल को कीड़े लगने या खराब होने की संभावना कम हो जाएगी और क्वालिटी में सुधार भी होगा। अपनी रंगीन सब्जियों में जयेंद्र ड्रिप सिंचाई तकनीक और वर्मी कम्पोस्ट का ही इस्तेमाल करते हैं।



जैविक विधि से तैयार प्रोडेक्ट अब जयेंद्र की पहचान बन गए हैं। उन्होंने बताया कि 2017 में कृषि विज्ञान केंद्र से नर्सरी मैन्यूफैक्चरिंग की ट्रेनिंग ली। तब नर्सरी लगाने का विचार आया। नर्सरी के लिए डोम की जरूरत थी। मुझे बांस से पॉली हाउस बनाने का अनुभव हो चुका था। नर्सरी के डोम के लिए लोन लेता तो 50 हजार का खर्च होता। इसलिए मैंने जुगाड़ तकनीक से खुद ही 40 बाई 90 फीट का शेडनेट बना लिया। इस शेडनेट में 35 से 50 हजार तक पौधे तैयार किए। नर्सरी लगाने से जैविक विधि से तैयार सब्जियों की पौध अच्छे दाम में बिकने लगी। साथ ही इलाके के किसान नर्सरीजयेंद्र ने बताया कि खेत में खुद का पॉली हाउस, लो-टनल और शेडनेट बनाकर अच्छे रिजल्ट मिले तो फिर इनोवेशन करने की आदत पड़ गई। साल 2020-21 में एक और प्रयोग किया। खेत में क्रॉप सेट नेट लगाया। जयेंद्र ने बताया कि जो फल-सब्जियां बेल पर लगती हैं उन्हें अगर एक डंडे के सहारे 4 से 5 फीट की ऊंचाई तक ले जाया जाए और फिर बेल को फैलने के लिए जाली का प्रयोग किया जाए तो फल-सब्जी की ग्रोथ अच्छी होती है, यही तकनीक क्रॉप सेट नेट कहलाती है। यह प्रयोग करेले की फसल पर किया था। इस तकनीक से करेले की साइज बहुत अच्छी मिली और एक ही सीजन में 1 लाख रुपए से ज्यादा का मुनाफा हुआ। इसी तकनीक का इस्तेमाल अब वे लौकी की फसल के लिए कर रहे हैं।


जयेंद्र ने कहा कि कोरोना से पहले उनकी रंगीन सब्जियां हाड़ौती के फाइव स्टार होटलों में सप्लाई हो रही थीं। कोरोना काल में सब बंद हो गया तो लोकल मार्केट पर ही फोकस किया। अब स्थानीय बाजार में ही सब्जियों की अच्छी डिमांड है और अच्छा मुनाफा भी मिल रहा है। खास बात ये है कि इन रंगीन सब्जियों के अब चुनिंदा ग्राहक हो गए हैं जो ऑर्डर पर सब्जियां ले जा रहे हैं।जयेंद्र के इनोवेशन थमे नहीं हैं। वे लगातार कुछ नया करते रहते हैं। हाल ही में उन्होंने इंटरक्रॉप का प्रयोग किया है। इंटर क्रॉप एक साथ एक ही जगह से दो तरह की फसल लेने को कहते हैं। ओपन फील्ड में जयेंद्र शिमला मिर्च के साथ अब ग्लेडियोलस फूलों (सफेद फूलों की कलम जो बुके में इस्तेमाल होती है) की उपज ले रहे हैं। उनका कहना है कि ग्लेडियोलस की डिमांड बढ़ने के साथ वे इसकी उपज का दायरा भी बढ़ा देंगे। ग्लेडियोलस के साथ 56 कद्दू, खीरा, टमाटर भी लगा रखा है।जयेंद्र का कहना है कि जमीन कम होने के बावजूद में

परंपरागत खेती से दो से तीन गुना ज्यादा आय अर्जित कर रहे हैं। एक बीघा जमीन खरीद ली है। दो बच्चे हैं, बेटी 9वीं क्लास में पढ़ रही है, बेटा सेकेंड क्लास में है। बच्चों की शिक्षा अच्छी चल रही है। परिवार में किसी तरह की कोई कमी नहीं है। सभी सुख-सुविधाएं हैं। नए-नए प्रयोग कर सब्जियां, फूल और फल उगाकर वे महीने में 70 से 80 हजार की इनकम कर रहे हैं।


इन्हीं नवाचार के चलते जयेंद्र को 2014 में सरकार की आत्मा योजना के तहत उन्नत तकनीक के लिए पुरस्कृत किया गया। 2015 में उपखंड स्तर पर वे सम्मानित हुए और हाल ही 15 अगस्त 2022 में जिला प्रशासन ने उनका सम्मान किया



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